Google Tag Manager

Search Library Soup

Loading
Showing posts with label Education. Show all posts
Showing posts with label Education. Show all posts

Thursday, November 15, 2012

शिक्षा की बेहतरी का जरूरी माध्यम


प्रेमपाल शर्मा
खुशी की बात है कि मानव संसाधन विकास मंत्रालय के एक विशेषज्ञ समूह ने राष्ट्रीय पुस्तक प्रोत्साहन नीति के तहत देश भर में पुस्तकालयों का संजाल बढ़ाने का फैसला किया है.
पिछले पांच-सात सालों में शिक्षा में सुधार के दर्जनों सुझावों के बीच गांव-गांव में पुस्तकालय खोलने की बातें भी होती रही हैं लेकिन ऐसी योजनाएं अब तक कागजों से बाहर रूप नहीं ले पाई हैं. उम्मीद है कि अब जल्दी लेंगी. ऐसा नहीं कि शिक्षा और साक्षरता के संदर्भ में पुस्तकालयों के महत्व की बात पहली बार उठी हो. साठ के दशक में सिन्हा समिति ने गांव-गांव पुस्तकालय खोलने की बात कही थी. योजना आयोग ने भी 1964 में एक नीति के तहत सार्वजनिक पुस्तकालयों की वकालत की. इस मामले में बिल भी पास हुआ. हालांकि कुछ राज्यों ने अभी भी वह बिल पास नहीं किया है पर जहां यह लागू है, वहां भी कार्यान्वयन की गति निराशाजनक रही है.
प्रश्न नियम, कानून या बिल का इतना नहीं है जितना इसकी जरूरत के अहसास का है. सूचना क्रांति के बाद तो यह और भी जरूरी लगने लगा है. साक्षरता पिछले एक दशक में बढ़ी है लेकिन उसके स्तर को लेकर तरह-तरह की शंकाएं की जा रही हैं. ये शंकाएं निराधार भी नहीं हैं. जब पांचवी या आठवीं का बच्चा सही ढंग से अपना नाम न लिख सके, कुछ हल्के-फुल्के गणित के जोड़, घटा न कर सके तो साक्षरता के आंकड़े तो बेहतर हो सकते हैं लेकिन उसकी समझ को लेकर प्रश्न बने ही रहेंगें.
बहरहाल, पुस्तकालय आंदोलन साक्षरता और शिक्षा की बेहतरी में तो मदद करेगा ही, एक बेहतर नागरिक बनाने में भी इसकी भूमिका उतनी ही महत्वपूर्ण होगी. दूसरे राज्यों से सबक लिया जाए तो केरल इसका सबसे अच्छा उदाहरण है जहां लगभग हर गांव में पुस्तकालयों की श्रृंखला मौजूद है. इसका फायदा भी उस राज्य को पूरा मिला है.

लड़कियों की शिक्षा हो या साक्षरता अथवा लिंग अनुपात या ह्यूमेन डेवलेपमेंट इंडेक्स- सभी में केरल बाकी राज्यों से बेहतर है. क्या ऐसे राज्य की सफलता पूरे देश में नहीं दोहराई जा सकती? इसके मुकाबले उत्तर प्रदेश, बिहार जैसे राज्यों की स्थिति उतनी ही खराब है. बल्कि लगता है कि पिछले दशकों में और भी खराब हुई है. कुछ समय पहले तक जिन स्कूल-कॉलेजों में नियमित तौर पर पुस्तकालय चलन में थे, आज वहां ये लगभग या तो हैं ही नहीं या बंद हो चुके हैं.
यहां कि तक महाविद्यालय विविद्यालयों में भी ऐसी गिरावट स्पष्ट है. देश में पिछले दिनों में इंजीनियरिंग या दूसरे व्यावसायिक कॉलेजों की बाढ़ तो आई है लेकिन पुस्तकालय उनके प्रबंधन की प्राथमिकता में नहीं हैं. कम से कम उत्तर भारत के शायद ही किसी नये कॉलेज में कोई समृद्ध पुस्तकालय चल रहा हो. जब डिग्री कॉलेजों और स्कूलों में ही पुस्तकालय नहीं हैं तो वहां पढ़ने वाले बच्चे पढ़ने की परंपरा कहां से सीखेंगे? उनके लिए शिक्षा का अर्थ लौट फिर कर कुछ कोर्स की किताबें, कुंजियां या उनके प्रश्न रटना भर रह गया है. सर्वे के अनुसार लगभग पचहत्तर प्रतिशत स्कूल और कॉलेज के विद्यार्थी कोर्स की किताबों के अलावा और कुछ नहीं पढ़ते. शिक्षा, शोध के गिरते स्तर के कारणों में एक बड़ा कारण यह पक्ष भी है.
भारत गरीब देश है जिसकी अधिसंख्य जनता बहुत कम सुविधाओं में गुजर-बसर करती है. यदि हर गांव में एक पुस्तकालय हो तो उन मजदूरों, किसानों के बच्चे भी उसका फायदा उठा सकते हैं जिनके अभिभावक न तो पढ़े-लिखे हैं और न ज्ञान के विभिन्न स्रेतों से परिचित हैं. पंचायती राज के माहौल में तो गांवों में बहुत आसानी से पंचायत भवन के एक हिस्से में पुस्तकालय की अनिवार्यता की जा सकती है.
ग्रामीण विकास की सैकड़ों परियोजनाओं के बीच इस पर बहुत ज्यादा खर्च भी नहीं आएगा. सामाजिक क्रांति के लिए पुस्तकालय सबसे बेहतर धर्मनिरपेक्ष स्थान साबित हो सकता है-धर्म, जाति किसी भी विचारधारा से ऊपर. क्या एक सच्चे लोकतंत्र की दिशा में बढ़ने के लिए हमें ऐसे नागरिकों की जरूरत नहीं, जहां पुस्तकों की रोशनी में बेहतर नागरिक बन कर निकलें? अंधविास, पाखंड, जाति-धर्म के खिलाफ लड़ाई में भी पुस्तकालय कारगर भूमिका निभा सकते हैं.
पुस्तकालयों की व्यावहारिक जरूरत पर भी एक नजर डाली जाए. सवाल है कि क्या उत्तर प्रदेश, बिहार जैसे राज्यों के विद्यार्थी रहने या खाने-पीने की सुविधाओं के लिए ही महानगरों में आते हैं? बिल्कुल नहीं. वे इसलिए आते हैं क्योंकि दिल्ली, मुम्बई, कोलकाता जैसे महानगरों में पढ़ने-लिखने, पुस्तकालयों व विविद्यालयों की बेहतर सुविधाएं हैं. अस्सी के दशक में जब मेरी पीढ़ी दिल्ली पहुंची तो इन पुस्तकालयों की बदौलत ही रास्ते खुलते गये. दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी की शाखाएं दिल्ली के कोने-कोने में थीं.
अंग्रेजी, हिंदी के अखबारों समेत नई से नई किताबों से भरी हुई. पुराने प्रतिष्ठित पुस्तकालय हरदयाल लाइब्रेरी और तीन मूर्ति लाइब्रेरी तो थी ही, मंडी हाउस पर साहित्य अकादमी, आईसीसीआर लाइब्रेरी, आईटीओ पर मौलाना आजाद लाइब्रेरी समेत दिल्ली विविद्यालय और जवाहर लाल नेहरू विविद्यालय के पुस्तकालयों की बदौलत हिंदी भाषी राज्यों के युवक दिल्ली की तरफ खिंचते चले आए और आज भी यह क्रम जारी है. लेकिन क्या दिल्ली या किसी बड़े महानगर में पहुंचना ही एक रास्ता है? और क्या पूरा देश दिल्ली पहुंच सकता है?
सच यह है कि जिन पुस्तकों, ज्ञान सूचना के स्रेतों के लिए शहर भागना पड़ता है, यदि वे गांव में उपलब्ध हो जाएं तो सीमित संसाधनों के चलते कोई भी नौजवान अपने ही घर गांव में प्रतियोगी परीक्षाओं से लेकर बेहतर शिक्षा अर्जित कर सकते हैं. इसीलिए जितनी जल्दी हो, सरकार को इस दिशा में आवश्यक कदम उठाने चाहिए और केवल सरकार ही नहीं, उन प्रबुद्ध बुद्धिजीवियों या समाज के उस पढ़े-लिखे हिस्से को भी सक्रिय रूप से आगे आना चाहिए जो चाहता है कि भविष्य के लोकतांत्रिक भारत में सभी की समान रूप से भागीदारी बढ़े.
पुस्तकालयों के नाम से ही कुछ लोग बहस को विपरीत दिशा में ले जाने की कोशिश करते हैं कि इंटरनेट, ई-मेल, टेलीविजन के इस युग में किताबें पढ़ता कौन है ? कितना भोला है यह तर्क? यदि किताबें इतनी अवांछनीय हो गई हैं तो इनसे पूछा जाना चाहिए कि वे अपने बच्चों को स्कूल क्यों भेज रहे हैं? क्यों अपने बच्चों को स्कूलों में किताबें पढ़ने दे रहे हैं? इंटरनेट और दूसरे संचार माध्यमों का पुस्तक से कोई विरोध नहीं है. शिक्षा की शुरुआत तो किसी न किसी किताब से ही करनी पड़ेगी और जब पुस्तकालय की बात की जाती है तो इसका उद्देश्य बहुत सहजता से उन लोगों के बीच पहुंचाने का है जो पीढ़ियों से निरक्षर बने हुए हैं. पुस्तकालय योजना तो उनको उस निरक्षरता के अंधेरे से बाहर लाने का सबसे सार्थक कदम है.
इन पुस्तकालयों में भविष्य में ऑडियो, वीडियो या कंप्यूटर की दूसरी सुविधाएं भी जरूरत के हिसाब से बढ़ाई जा सकती हैं. दुनिया के विकसित देश अमेरिका, यूरोप में भी सार्वजनिक पुस्तकालय अभी भी उतना ही महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं. विकसित देशों में तो पुस्तकालयों की इतनी लम्बी फेहरिस्त है और इतनी सुविधाओं के साथ कि आप किसी भी पुस्तकालय से पुस्तक ले कर कहीं भी जमा करा सकते हैं. शोध और बैठने की तमाम सुविधाओं के साथ राज्य का काम ऐसी सुविधाओं को हर व्यक्ति तक पहुंचाना होता है.
क्या समझदार नागरिकों के बिना लोकतंत्र की कल्पना की जा सकती है? और इस दिशा में पुस्तकालय आंदोलन प्रभावी भूमिका निभा सकता है. पुस्तकालय आंदोलन विशेषकर हिंदी पट्टी में साहित्य, संस्कृति के प्रति जागरूकता भी पैदा कर सकता है. यदि किताबें सहज और सस्ती उपलब्ध हों तो धीरे-धीरे उन्हें पढ़ने की आदत भी पड़ेगी. इससे पुस्तक की बिक्री और प्रसार में भी शायद आसानी हो. अभी तो प्रकाशक सिर्फ पुस्तकालय संस्करण के भरोसे इतनी ऊंची कीमतें रखते हैं कि आम आदमी इन्हें खरीद ही नहीं पाता. नुकसान दोनों ही पक्षों का है. लेखक और पुस्तक का भी और उस ज्ञान से वंचित जनता का भी. भारत सरकार के नेशनल बुक ट्रस्ट, प्रकाशन विभाग जैसे संस्थान सस्ती पुस्तकें उपलब्ध कराते हैं. विभिन्न भाषाओं के दूसरे प्रकाशकों को भी इस आंदोलन में हाथ बढ़ाने की जरूरत है. शिक्षा के उदारीकरण के इस दौर में क्या कोई काम गरीबों के लिए भी क्रियान्वित होगा?
साभार: प्रेमपाल शर्मा एवं http://www.samaylive.com/

Sunday, October 14, 2012

Higher education in India to get global touch


‘1.46 crore students study in 600 universities, 32,000 colleges’
Deputy director general of Union higher education department Vijay P Goel said the government was making efforts to bring about major changes in course structure and content to make courses relevant, keeping in view global perspective.

Delivering the fifth graduates day address at JSS College of Arts, Commerce and Science here on Saturday, he said attempts were on to establish a National Commission for Higher Education; to set up inter-university centres with sophisticated analytical facility; to set up exclusive management information system and to transform academic staff colleges into faculty development centres.

He pointed out that 1.46 crore students were studying in 600 universities or university level institutions and 32,000 colleges — comprising around six lakh faculty members.

“A number of measures were taken to enhance the quality of higher education during the XI Five Year Plan period, the efforts would continue even during the XII Plan period. The foreign education institutions (regulation and entry operations) bill and higher education and research bill would be introduced in the Parliament soon,” he said.

Stressing on the employability of graduates and postgraduates, Goel said attention is being given to the area of vocationalisation of higher education.

“The Universities Grants Commission has prepared a document on higher education ‘Inclusive and Qualitative Expansion of Higher Education’ to give insight into the sector. It states that ‘Access, Equity and Excellence’ have been realised due to concerted efforts,” he said.

Calling upon the students to acquire the art of using knowledge and skills not only to make one’s life good but also for the greater good of the society, he stressed on the ‘real education’ one gets after passing out of educational institutions.

Three toppers each in each of the five degree level and five PG level courses were honoured on the occasion. The toppers got cash prizes also.

Principal B V Sambashivaiah, deputy secretary of JSS Mahavidyapeeth S P Manjunath, director of education T D Subbanna, S Kumar and S Shivakumaraswamy were present on the occasion.

Friday, June 8, 2012

Libraries Have a Key Role in Academic Accountability


The continuing drive for more accountability in academe presents “a unique opportunity” for libraries, which are well placed to connect students, faculty members, and administrators. That was the takeaway from two summits on the value of academic libraries organized by the Association of College & Research Libraries, or ACRL. The association today released a report, “Connect, Collaborate, and Communicate,” that recaps the summit conversations and offers a few recommendations.
The summits grew out of a major 2010 ACRL report on the value of academic libraries, part of the association’s effort to help its members document and demonstrate that value. Convened late last year in Chicago, the meetings brought librarians and administrators from 22 institutions together to talk about the broader landscape of assessment and where libraries fit into it. According to the new report, participants at the summits acknowledged the importance of faculty research but mainly focused on “student learning and success, an issue facing increasing public scrutiny.”
The report lists five “overarching recommendations for the library profession” that came out of the gatherings. Participants stressed the importance of helping librarians understand and measure how their libraries affect student success, and the need to develop “assessment competencies” to help put effective practices in place. They wanted to see more professional-development opportunities for librarians to learn about assessment practices. They saw a need to expand partnerships with other groups on campus who are also interested in assessment. And they wanted more integration of existing ACRL assessment tools into what librarians are doing at individual institutions.
The report suggests that libraries can make the most of the current accountability push and “spark communities of action” around the question of assessment. “Academic librarians can serve as connectors and integrators, promoting a unified approach to assessment,” it concludes. “As a neutral and well-regarded place on campus, the academic library can help break down traditional institutional silos and foster increased communication across the institutional community.”
Karen Brown, an associate professor of library and information science at Dominican University, and Kara J. Malenfant, the association’s senior strategist for special initiatives, wrote the report. Summit participants included teams of provosts and library directors from a variety of state universities and smaller colleges, including California State University, Drexel University, Grinnell College, Kansas State University, Linfield College, Moraine Valley Community College, Mount Holyoke College, Pennsylvania State University, Rio Salado College, San Diego State University, the University of West Florida, and Utah State University, among others.