प्रेमपाल शर्मा |
खुशी की बात है कि मानव संसाधन विकास मंत्रालय के एक विशेषज्ञ समूह ने राष्ट्रीय पुस्तक प्रोत्साहन नीति के तहत देश भर में पुस्तकालयों का संजाल बढ़ाने का फैसला किया है.
पिछले पांच-सात सालों में शिक्षा में सुधार के दर्जनों सुझावों के बीच गांव-गांव में पुस्तकालय खोलने की बातें भी होती रही हैं लेकिन ऐसी योजनाएं अब तक कागजों से बाहर रूप नहीं ले पाई हैं. उम्मीद है कि अब जल्दी लेंगी. ऐसा नहीं कि शिक्षा और साक्षरता के संदर्भ में पुस्तकालयों के महत्व की बात पहली बार उठी हो. साठ के दशक में सिन्हा समिति ने गांव-गांव पुस्तकालय खोलने की बात कही थी. योजना आयोग ने भी 1964 में एक नीति के तहत सार्वजनिक पुस्तकालयों की वकालत की. इस मामले में बिल भी पास हुआ. हालांकि कुछ राज्यों ने अभी भी वह बिल पास नहीं किया है पर जहां यह लागू है, वहां भी कार्यान्वयन की गति निराशाजनक रही है.
प्रश्न नियम, कानून या बिल का इतना नहीं है जितना इसकी जरूरत के अहसास का है. सूचना क्रांति के बाद तो यह और भी जरूरी लगने लगा है. साक्षरता पिछले एक दशक में बढ़ी है लेकिन उसके स्तर को लेकर तरह-तरह की शंकाएं की जा रही हैं. ये शंकाएं निराधार भी नहीं हैं. जब पांचवी या आठवीं का बच्चा सही ढंग से अपना नाम न लिख सके, कुछ हल्के-फुल्के गणित के जोड़, घटा न कर सके तो साक्षरता के आंकड़े तो बेहतर हो सकते हैं लेकिन उसकी समझ को लेकर प्रश्न बने ही रहेंगें.
बहरहाल, पुस्तकालय आंदोलन साक्षरता और शिक्षा की बेहतरी में तो मदद करेगा ही, एक बेहतर नागरिक बनाने में भी इसकी भूमिका उतनी ही महत्वपूर्ण होगी. दूसरे राज्यों से सबक लिया जाए तो केरल इसका सबसे अच्छा उदाहरण है जहां लगभग हर गांव में पुस्तकालयों की श्रृंखला मौजूद है. इसका फायदा भी उस राज्य को पूरा मिला है.
लड़कियों की शिक्षा हो या साक्षरता अथवा लिंग अनुपात या ह्यूमेन डेवलेपमेंट इंडेक्स- सभी में केरल बाकी राज्यों से बेहतर है. क्या ऐसे राज्य की सफलता पूरे देश में नहीं दोहराई जा सकती? इसके मुकाबले उत्तर प्रदेश, बिहार जैसे राज्यों की स्थिति उतनी ही खराब है. बल्कि लगता है कि पिछले दशकों में और भी खराब हुई है. कुछ समय पहले तक जिन स्कूल-कॉलेजों में नियमित तौर पर पुस्तकालय चलन में थे, आज वहां ये लगभग या तो हैं ही नहीं या बंद हो चुके हैं.
यहां कि तक महाविद्यालय विविद्यालयों में भी ऐसी गिरावट स्पष्ट है. देश में पिछले दिनों में इंजीनियरिंग या दूसरे व्यावसायिक कॉलेजों की बाढ़ तो आई है लेकिन पुस्तकालय उनके प्रबंधन की प्राथमिकता में नहीं हैं. कम से कम उत्तर भारत के शायद ही किसी नये कॉलेज में कोई समृद्ध पुस्तकालय चल रहा हो. जब डिग्री कॉलेजों और स्कूलों में ही पुस्तकालय नहीं हैं तो वहां पढ़ने वाले बच्चे पढ़ने की परंपरा कहां से सीखेंगे? उनके लिए शिक्षा का अर्थ लौट फिर कर कुछ कोर्स की किताबें, कुंजियां या उनके प्रश्न रटना भर रह गया है. सर्वे के अनुसार लगभग पचहत्तर प्रतिशत स्कूल और कॉलेज के विद्यार्थी कोर्स की किताबों के अलावा और कुछ नहीं पढ़ते. शिक्षा, शोध के गिरते स्तर के कारणों में एक बड़ा कारण यह पक्ष भी है.
भारत गरीब देश है जिसकी अधिसंख्य जनता बहुत कम सुविधाओं में गुजर-बसर करती है. यदि हर गांव में एक पुस्तकालय हो तो उन मजदूरों, किसानों के बच्चे भी उसका फायदा उठा सकते हैं जिनके अभिभावक न तो पढ़े-लिखे हैं और न ज्ञान के विभिन्न स्रेतों से परिचित हैं. पंचायती राज के माहौल में तो गांवों में बहुत आसानी से पंचायत भवन के एक हिस्से में पुस्तकालय की अनिवार्यता की जा सकती है.
ग्रामीण विकास की सैकड़ों परियोजनाओं के बीच इस पर बहुत ज्यादा खर्च भी नहीं आएगा. सामाजिक क्रांति के लिए पुस्तकालय सबसे बेहतर धर्मनिरपेक्ष स्थान साबित हो सकता है-धर्म, जाति किसी भी विचारधारा से ऊपर. क्या एक सच्चे लोकतंत्र की दिशा में बढ़ने के लिए हमें ऐसे नागरिकों की जरूरत नहीं, जहां पुस्तकों की रोशनी में बेहतर नागरिक बन कर निकलें? अंधविास, पाखंड, जाति-धर्म के खिलाफ लड़ाई में भी पुस्तकालय कारगर भूमिका निभा सकते हैं.
पुस्तकालयों की व्यावहारिक जरूरत पर भी एक नजर डाली जाए. सवाल है कि क्या उत्तर प्रदेश, बिहार जैसे राज्यों के विद्यार्थी रहने या खाने-पीने की सुविधाओं के लिए ही महानगरों में आते हैं? बिल्कुल नहीं. वे इसलिए आते हैं क्योंकि दिल्ली, मुम्बई, कोलकाता जैसे महानगरों में पढ़ने-लिखने, पुस्तकालयों व विविद्यालयों की बेहतर सुविधाएं हैं. अस्सी के दशक में जब मेरी पीढ़ी दिल्ली पहुंची तो इन पुस्तकालयों की बदौलत ही रास्ते खुलते गये. दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी की शाखाएं दिल्ली के कोने-कोने में थीं.
अंग्रेजी, हिंदी के अखबारों समेत नई से नई किताबों से भरी हुई. पुराने प्रतिष्ठित पुस्तकालय हरदयाल लाइब्रेरी और तीन मूर्ति लाइब्रेरी तो थी ही, मंडी हाउस पर साहित्य अकादमी, आईसीसीआर लाइब्रेरी, आईटीओ पर मौलाना आजाद लाइब्रेरी समेत दिल्ली विविद्यालय और जवाहर लाल नेहरू विविद्यालय के पुस्तकालयों की बदौलत हिंदी भाषी राज्यों के युवक दिल्ली की तरफ खिंचते चले आए और आज भी यह क्रम जारी है. लेकिन क्या दिल्ली या किसी बड़े महानगर में पहुंचना ही एक रास्ता है? और क्या पूरा देश दिल्ली पहुंच सकता है?
सच यह है कि जिन पुस्तकों, ज्ञान सूचना के स्रेतों के लिए शहर भागना पड़ता है, यदि वे गांव में उपलब्ध हो जाएं तो सीमित संसाधनों के चलते कोई भी नौजवान अपने ही घर गांव में प्रतियोगी परीक्षाओं से लेकर बेहतर शिक्षा अर्जित कर सकते हैं. इसीलिए जितनी जल्दी हो, सरकार को इस दिशा में आवश्यक कदम उठाने चाहिए और केवल सरकार ही नहीं, उन प्रबुद्ध बुद्धिजीवियों या समाज के उस पढ़े-लिखे हिस्से को भी सक्रिय रूप से आगे आना चाहिए जो चाहता है कि भविष्य के लोकतांत्रिक भारत में सभी की समान रूप से भागीदारी बढ़े.
पुस्तकालयों के नाम से ही कुछ लोग बहस को विपरीत दिशा में ले जाने की कोशिश करते हैं कि इंटरनेट, ई-मेल, टेलीविजन के इस युग में किताबें पढ़ता कौन है ? कितना भोला है यह तर्क? यदि किताबें इतनी अवांछनीय हो गई हैं तो इनसे पूछा जाना चाहिए कि वे अपने बच्चों को स्कूल क्यों भेज रहे हैं? क्यों अपने बच्चों को स्कूलों में किताबें पढ़ने दे रहे हैं? इंटरनेट और दूसरे संचार माध्यमों का पुस्तक से कोई विरोध नहीं है. शिक्षा की शुरुआत तो किसी न किसी किताब से ही करनी पड़ेगी और जब पुस्तकालय की बात की जाती है तो इसका उद्देश्य बहुत सहजता से उन लोगों के बीच पहुंचाने का है जो पीढ़ियों से निरक्षर बने हुए हैं. पुस्तकालय योजना तो उनको उस निरक्षरता के अंधेरे से बाहर लाने का सबसे सार्थक कदम है.
इन पुस्तकालयों में भविष्य में ऑडियो, वीडियो या कंप्यूटर की दूसरी सुविधाएं भी जरूरत के हिसाब से बढ़ाई जा सकती हैं. दुनिया के विकसित देश अमेरिका, यूरोप में भी सार्वजनिक पुस्तकालय अभी भी उतना ही महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं. विकसित देशों में तो पुस्तकालयों की इतनी लम्बी फेहरिस्त है और इतनी सुविधाओं के साथ कि आप किसी भी पुस्तकालय से पुस्तक ले कर कहीं भी जमा करा सकते हैं. शोध और बैठने की तमाम सुविधाओं के साथ राज्य का काम ऐसी सुविधाओं को हर व्यक्ति तक पहुंचाना होता है.
क्या समझदार नागरिकों के बिना लोकतंत्र की कल्पना की जा सकती है? और इस दिशा में पुस्तकालय आंदोलन प्रभावी भूमिका निभा सकता है. पुस्तकालय आंदोलन विशेषकर हिंदी पट्टी में साहित्य, संस्कृति के प्रति जागरूकता भी पैदा कर सकता है. यदि किताबें सहज और सस्ती उपलब्ध हों तो धीरे-धीरे उन्हें पढ़ने की आदत भी पड़ेगी. इससे पुस्तक की बिक्री और प्रसार में भी शायद आसानी हो. अभी तो प्रकाशक सिर्फ पुस्तकालय संस्करण के भरोसे इतनी ऊंची कीमतें रखते हैं कि आम आदमी इन्हें खरीद ही नहीं पाता. नुकसान दोनों ही पक्षों का है. लेखक और पुस्तक का भी और उस ज्ञान से वंचित जनता का भी. भारत सरकार के नेशनल बुक ट्रस्ट, प्रकाशन विभाग जैसे संस्थान सस्ती पुस्तकें उपलब्ध कराते हैं. विभिन्न भाषाओं के दूसरे प्रकाशकों को भी इस आंदोलन में हाथ बढ़ाने की जरूरत है. शिक्षा के उदारीकरण के इस दौर में क्या कोई काम गरीबों के लिए भी क्रियान्वित होगा?